निर्वाचन आयोग की सख्ती से सांसत में है उम्मीदवारों की जान
MP Election – बैतूल – एक समय हुआ करता था जब चुनाव आते ही समूचा नगर सहित गली-मोहल्ले, और चौक-चौराहे बैनर, पोस्टर से पट जाया करते थे। लोग चुनाव प्रचार के लिए दीवार लेखन कराते थे, बिल्ले बांटे जाते थे, लोगों के सिर पर टोपियां और गलों में गमछे हुआ करते थे जिनमें सिर्फ पार्टियों के नाम होते थे उम्मीदवारों के नहीं। लेकिन अब सबकुछ बदल गया है।
इतने अधिक संसाधन नहीं होने के बावजूद भी 70 और 80 के दशक के चुनाव उत्साह से लबरेज होते थे। यदि कांग्रेस और भाजपा की बात करें तो भाजपा (जनसंघ और जनता पार्टी)का चुनाव चिन्ह जहां दीपक और बाद में हलधर किसान हुआ करता था तो वहीं कांग्रेस का चुनाव चिन्ह दो बैलों की जोड़ी उसके बाद गाय-बछड़ा हुआ करता था।
घर-परिवार की शोभा होते थे चुनाव चिन्ह | MP Election
यह चुनाव चिन्ह ऐसे हुआ करते थे जो कि आम मतदाताओं को सीधा जोड़ते थे। मसलन हलधर किसान जहां खेती-बाड़ी से संंबंधित हुआ करता था तो दीपक भी बिजली ना होने के कारण हर घर में दिखाई देता था। तो कांग्रेस का दो बैलों की जोड़ी और गाय बछड़ा चुनाव चिन्ह ग्रामीण परिवेश और पशु पालन को बढ़ावा देता था। यही वजह है कि चुनाव के दौरान इन चुनाव चिन्ह के बिल्ले को लेने के लिए मतदाताओं में गजब का उत्साह हुआ करता था।
मतदाता चुनाव के दौरान अपने सीने पर सेप्टी पिन से इन बिल्लों को लगाकर रखना शान समझते थे। चुनाव खत्म हो जाने के भी कई महीनों तक मतदाता इन चुनाव चिन्हों को संभालकर रखते थे। उन्हें पार्टी के चुनाव चिन्ह से अधिक टीन के बिल्ले में प्रिंट किया गया हलधर किसान और गाय-बछड़ा खूब पसंद आता था।
इसके साथ ही पेंटिंग करने वाले, टेलर को रोजगार भी मिल जाता था। सभी वर्ग में गजब का उत्साह रहता था। कभी कभार यदि पूरे चुनाव में एकाध बार भी जिला मुख्यालय पर किसी बड़े नेता का हेलीकाप्टर आता था तो उसे देखने के लिए जिले भर से लोग आते थे। उन्हें भले ही नेता क्या बोल रहा है, किसका प्रचार कर रहा है इससे अधिक लेना-देना ना हो लेकिन अधिकांश लोग हेलीकाप्टर देखने के लिए जरूर आते थे और इस हेलीकाप्टर की महीनों तक चर्चा गांव-गांव में चौपालों पर होती थी। इसी तरह से गांव में यदि कोई प्रचार वाहन पहुंच जाता था तो उसे उसके आसपास भी भीड़ लग जाती थी।
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गजब का होता था उत्साह
कुल मिलाकर यह कहा जाएगा कि चुनाव एक उत्सव की तरह मनाया जाता था भले ही संसाधन कम थे लेकिन लोगों में चुनाव को लेकर गजब का चाव दिखाई देता था। समय-बदला और देश-काल-परिस्थितियां बदली तो चुनाव में भी वह सबकुछ होने लगा जो कि नहीं होना चाहिए।
इसी के चलते चुनाव आयोग भी हर चुनाव में सख्त होता गया और आज स्थिति यह हो गई है कि चुनाव को लेकर उत्साह तो दूर कोई चर्चा करना भी अधिक पसंद नहीं करता है। चुनाव के दौरान किए जाने वाले कार्यों पर नजर रखने के लिए चुनाव आयोग द्वारा बैठाई जाने वाली अफसरों की फौज प्रत्याशियों और उनके कार्यकर्ताओं पर पैनी नजर रखने से अब चुनाव में नीरस होने लगे हैं।
बैलगाड़ी से होता था प्रचार | MP Election
70 और 80 के दशक में चुनाव प्रचार बैलगाड़ी से होता था। फूलों से सजी आठ से दस बैलगाडियों का काफिला जब निकलता था तो लोगों की भीड़ देखने को जुटती थी। बैलगाड़ी के पीछे उम्मीदवार और समर्थन भोपू से नारा लगाते हुए चलते थे। हले कम खर्चे में चुनाव होता था। उस दौरान शोर शराबा नहीं होता था।
इसी तरह से शहरी क्षेत्रों में रिक्शे और तांगा प्रचार का प्रमुख माध्यम होता था। समर्थक उम्मीदवारा का नाम, पार्टी का नाम और चुनाव चिह्न हाथ से लिख कर लोगों को देते थे। उम्मीदवार के नाम की घोषणा के बाद प्रमुख लोग एक बैठक करते थे। किस उम्मीदवार को वोट देना है उस बैठक में निर्णय होता था। लोगों का विचार जानने के लिए हाथ उठवाया जाता था। जिस उम्मीदवार के पक्ष में हाथ अधिक उठता था, उसी के पक्ष में मतदान सभी लोग करते थे। सर्वसम्मति से जो निर्णय हो जाता था उसका सभी लोग खुलकर समर्थन भी करते थे।
वोटर देते थे प्रत्याशियों को चंदा
50 वर्ष पहले प्रत्याशी वोटरों से आत्मीयता का रिश्ता बनाते थे। वहीं, वोटर भी प्रत्याशी को चुनाव खर्च के लिए चंदा देते थे। वोट मांगने गए प्रत्याशी से लेकर कार्यकर्ताओं तक के भोजन का इंतजाम वोटर के घर होता था। अब तो चुनाव प्रचार के दौरान एक प्रत्याशी दूसरे प्रत्याशी को नीचा दिखाने के लिए कीचड़ उछालने से परहेज नहीं करते हैं।
साइकिल से घूमकर करते थे प्रचार | MP Election
1970 के दशक में चुनाव प्रचार करने के लिए साइकिल उत्तम साधन माना जाता था। उस समय अधिकांश साइकिल से ही एक -एक दिन में 20-20 किलोमीटर का सफर तय कर चुनाव प्रचार किया जाता था। चुनाव लडऩे के लिए कोई 10 पैसा तो कोई 20 पैसा तक चंदा देते थे। साथ ही प्रेम से अपने दरवाजे पर भोजन भी कराते थे। अब ऐसा नहीं है। पुराने समय में चुनाव में खड़ा हुआ प्रत्याशी के पास संसाधन नहीं होने के चलते उसे पैदल ही चुनाव प्रचार करना पड़ता था। उस समय बहुत कम खर्च चुनाव में होता था। गांव-गांव में पैदल घूमते थे। एक-एक वोटर के पास पहुंचते थे। तब और अब के चुनाव प्रचार में बहुत अंतर आ गया है।
हाईटेक युग में एडवांस तकनीक से चुनाव प्रचार
वर्तमान समय हाईटेक का है। हर चीज एडवांस तकनीक से की जा रही है तो चुनाव प्रचार के तरीके में भी बदलाव आया है। आज तो चुनाव प्रचार के लिए सोशल मीडिया का भी प्रयोग हो रहा है। कम समय में अधिक से अधिक लोगों से जुडऩे और अपनी बात पहुंचाने के लिए यह माध्यम सबसे सशक्त हो गया है। चुनाव प्रचार अब हाइटेक तरीके से होने लगा है। सैकड़ों गाडिय़ों का काफिला उम्मीदवार निकाल कर मतदाताओं को रिझाने का प्रयास कर रहे हैं।
व्यवस्था बदली तो चुनाव चिन्ह भी बदले | MP Election
1980 में जनता पार्टी से टूटकर वापस भाजपा का गठन हुआ और उन्हें चुनाव आयोग से कमल के फूल का नया चुनाव चिन्ह प्राप्त हुआ। इसी तरह से 1977 में इंदिरा गांधी ने कांग्रेस पार्टी में विभाजन की घोषणा की और नई पार्टी के रूप में इंदिरा कांग्रेस का गठन हुआ। जिसे बाद में अखि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का नाम मिल गया और चुनाव चिन्ह हाथ का पंजा प्राप्त हुआ। तभी से भाजपा और कांग्रेस के पास यह दोनों चुनाव चिन्ह दिखाई दे रहा है।
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