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बिहार चुनाव से पहले राहुल गांधी का राजनितिक दांव, दलित-पिछड़ा वर्ग को साधने की आक्रामक रणनीति

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पटना: बिहार में इसी साल विधानसभा चुनाव होने हैं और इसको लेकर कांग्रेस पूरी तरह सक्रिय नजर आ रही है। पार्टी के पूर्व अध्यक्ष और लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी पिछले चार महीनों में चौथी बार बिहार आए हैं। ताजा दौरे में उन्होंने दरभंगा में अंबेडकर छात्रावास के छात्रों से बातचीत की और पटना में 'फुले' फिल्म देखकर एक स्पष्ट सामाजिक संदेश देने की कोशिश की। इस दौरान उन्होंने तीन प्रमुख मांगें उठाईं- देश में जाति जनगणना, निजी क्षेत्रों में ओबीसी, ईबीसी, एससी और एसटी के लिए आरक्षण और एससी-एसटी सब प्लान के तहत फंडिंग की गारंटी।

कांग्रेस की दलितों के पास लौटने की कोशिश

बिहार में एक समय ऐसा था जब दलित, ब्राह्मण और अल्पसंख्यक कांग्रेस के बड़े वोट बैंक हुआ करते थे। लेकिन 1990 के दशक के बाद, खासकर 1995 के बाद कांग्रेस का यह आधार धीरे-धीरे खिसकता गया। मंडल राजनीति, क्षेत्रीय दलों के उदय और सामाजिक न्याय की नई परिभाषाओं ने कांग्रेस को राज्य की राजनीति में हाशिए पर ला दिया। 

दलितों से राहुल का जुड़ाव

अब राहुल गांधी एक बार फिर दलित समुदाय से जुड़ने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। अंबेडकर छात्रावास में छात्रों से बातचीत और समाज सुधारक ज्योतिबा फुले पर बनी फिल्म देखना इसी रणनीति का हिस्सा है। कांग्रेस यह दिखाना चाहती है कि वह सामाजिक न्याय के मुद्दों को लेकर गंभीर है और दलित-पिछड़ा समुदाय उसके एजेंडे का केंद्रीय हिस्सा है।

कांग्रेस की संगठनात्मक रणनीति में बदलाव

दलितों से जुड़ने के लिए कांग्रेस ने संगठनात्मक स्तर पर भी बदलाव किए हैं। कुछ महीने पहले पार्टी ने अपने सवर्ण नेता अखिलेश प्रसाद सिंह को हटाकर दलित समुदाय से आने वाले राजेश राम को प्रदेश अध्यक्ष बनाया था। इसके साथ ही सुशील पासी को प्रदेश का सह प्रभारी नियुक्त किया था। इसी साल फरवरी में कांग्रेस ने पहली बार प्रसिद्ध पासी नेता जगलाल चौधरी की जयंती भी मनाई थी, जिसमें खुद राहुल गांधी शामिल हुए थे। इससे साफ संकेत मिलता है कि पार्टी अपने पुराने दलित वोट बैंक को फिर से सक्रिय करने के लिए गंभीर प्रयास कर रही है।

बिहार में दलितों का राजनीतिक महत्व

बिहार में दलितों की आबादी करीब 19% है, जो राज्य की राजनीति में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं। 2005 में नीतीश कुमार की सरकार ने दलितों को 'महादलित' श्रेणी में विभाजित करके इस वोट बैंक को अपने पक्ष में मोड़ने की सफल कोशिश की थी। पासवान जाति को छोड़कर 21 अन्य जातियों को महादलित श्रेणी में शामिल किया गया था, जिसमें बाद में पासवान भी जुड़ गए। इस सोशल इंजीनियरिंग का असर यह हुआ कि दलितों का एक बड़ा वर्ग जेडीयू और एनडीए की ओर झुका। आपको बता दें कि बिहार विधानसभा की 243 सीटों में से 38 सीटें अनुसूचित जाति और 2 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं। कांग्रेस का वोट शेयर: गिरावट की कहानी:

पिछले तीन दशकों में बिहार में कांग्रेस का वोट बेस लगातार कम हुआ है

1990- 24.78%

1995- 16.30%

2000- 11.06%

2005- 6.09%

2010- 8.37%

2015- 6.7%

2020- 9.48%

यह गिरावट साफ तौर पर दिखाती है कि नीतीश कुमार के सत्ता में आने के बाद कांग्रेस के लिए राज्य की राजनीति में बने रहना मुश्किल हो गया। हालांकि 2020 में कुछ सुधार हुआ, लेकिन इसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता।

राहुल की रणनीति का क्या असर होगा?

राहुल गांधी की लगातार यात्राएं, दलित समुदाय से जुड़ाव और सामाजिक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना यह दर्शाता है कि कांग्रेस अब बिहार में जाति-सामाजिक समीकरणों को फिर से स्थापित करने की कोशिश कर रही है। हालांकि, यह रणनीति कितनी कारगर होगी, यह तो आने वाले चुनाव नतीजों से ही पता चलेगा। लेकिन यह तय है कि इस बार कांग्रेस अपने परंपरागत वोट बैंक को वापस पाने के लिए पूरा जोर लगा रही है। अगर दलित समुदाय का बड़ा हिस्सा कांग्रेस की तरफ लौटता है तो राज्य में सत्ता समीकरण बदल सकते हैं और कांग्रेस एक बार फिर क्षेत्रीय राजनीति में प्रासंगिकता हासिल कर सकती है।

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