Rare Earth Deal: अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया ने हाल ही में रेयर अर्थ और क्रिटिकल मिनरल्स (दुर्लभ खनिज) को लेकर 8.5 अरब डॉलर (लगभग ₹71,000 करोड़) की बड़ी डील पर हस्ताक्षर किए हैं। इसका मकसद है — चीन पर निर्भरता कम करना। लेकिन सवाल यह उठता है कि अगर अमेरिका अपने हित में ऐसा समझौता कर सकता है, तो भारत अपने राष्ट्रीय हितों के लिए चीन के साथ वैसा ही समझौता क्यों नहीं कर सकता?
अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के बीच हुआ बड़ा समझौता
व्हाइट हाउस में हुई इस डील पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री एंथनी अल्बनीज़ ने हस्ताक्षर किए। यह समझौता चार से पाँच महीनों की लंबी बातचीत के बाद हुआ। इसके तहत दोनों देश मिलकर आने वाले छह महीनों में खनन और प्रोसेसिंग प्रोजेक्ट्स में निवेश करेंगे। साथ ही, उन्होंने क्रिटिकल मिनरल्स के लिए प्राइस फ्लोर तय करने पर भी सहमति जताई है, जो लंबे समय से पश्चिमी कंपनियों की मांग रही है।
चीन पर निर्भरता घटाने की तैयारी
दुनिया में रेयर अर्थ मिनरल्स का सबसे बड़ा भंडार चीन के पास है, लेकिन ऑस्ट्रेलिया भी इस क्षेत्र में एक बड़ी ताकत है। इसलिए अमेरिका अब अपने क्वाड साझेदार ऑस्ट्रेलिया पर भरोसा कर रहा है ताकि चीन की सप्लाई चेन पर निर्भरता घटाई जा सके। अमेरिका का मकसद है कि वह चीन के आर्थिक दबाव से खुद को मुक्त कर सके।
भारत के लिए बड़ा सवाल
जब अमेरिका और उसके साझेदार देश रेयर अर्थ मिनरल्स के लिए समझौते कर रहे हैं, तो भारत अगर चीन से इसी तरह का व्यापारिक करार करता है तो उसे “रणनीतिक जोखिम” क्यों माना जाता है? भारत की ऊर्जा, तकनीक और रक्षा से जुड़ी कई ज़रूरतें अब भी चीन से आयात पर निर्भर हैं। ऐसे में यह तर्क दिया जा सकता है कि भारत को भी अपने राष्ट्रीय संसाधन हितों के अनुसार निर्णय लेने का अधिकार होना चाहिए, न कि केवल पश्चिमी नीतियों का अनुसरण करना चाहिए।
रणनीतिक समीकरणों में बदलाव
अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के बीच यह समझौता सिर्फ आर्थिक नहीं, बल्कि भू-राजनीतिक रणनीति का हिस्सा है। पश्चिमी देश अब चीन पर निर्भरता कम करने के लिए रेयर अर्थ मिनरल्स जैसे नीओडिमियम, डिसप्रोसियम, लैंथेनम आदि की वैकल्पिक सप्लाई तैयार कर रहे हैं। इन खनिजों का उपयोग इलेक्ट्रिक वाहन, जेट इंजन और रक्षा रडार जैसे आधुनिक उपकरणों में होता है।
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भारत के सामने दो रास्ते
जहां पश्चिमी देश चीन से दूरी बना रहे हैं, वहीं भारत के सामने दुविधा है — क्या वह भी वैश्विक राजनीति की दिशा में चले, या फिर अपने संसाधन और आर्थिक हितों को प्राथमिकता दे? अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया की यह डील इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में ताकत के संतुलन को बदल सकती है, और भारत को तय करना होगा कि उसका रुख किस ओर होगा।





