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लोकमाता अहिल्या : अभूतपूर्व प्रस्तुति

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भोपाल । शौर्य, अदम्य साहस व राजा और प्रजा के बीच अभेध्य विश्वास तथा श्रद्धा की अनुकरणीय मिसाल पेश करने वाली धर्म की प्रतिमूर्ति का अर्थ है—तत्कालीन मालवा राज्य की महान शासक देवी अहिल्याबाई होलकर । आपके जीवन और संघर्ष को दिखाता उद्देश्यपूर्ण व वैचारिक नाटक 'लोकमाता अहिल्या' (लेखक : उमेश कुमार चौरसिया)—जिसके प्रथम मंचन ने हिंदी रंगमंच पर इतिहास रच दिया । भारत सरकार द्वारा एसएनए युवा राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित सुपरिचित संस्कृतिधर्मी सरफ़राज़ हसन की परिकल्पना व निर्देशन में इसे यंग्स थिएटर फाउंडेशन के 45 से अधिक कलाकारों द्वारा लिटिल बैले ट्रुप सभागार में प्रस्तुत किया गया । सभागार दर्शकों से खचाखच भरा था । नाटक 80 मिनट का था । मंचन से पूर्व अहिल्याबाई होलकर के जीवन पर निर्देशक ने दर्शकों से संवाद किया।

नाटक की विशेष बात यह रही कि स्क्रिप्ट से इतर सरफ़राज़ हसन द्वारा अनन्य शिवभक्त अहिल्या की कहानी स्वयं मंच पर शिव पार्वती जी की के चरित्रों व संवादों से रचकर भगवान और भक्त की भावनात्मक दृष्टि को अत्यंत सुंदरता से प्रस्तुत किया । यह देशभर में हुए अहिल्याबाई के विषय मे अब तक किसी भी प्रदर्शन से बिलकुल अलग था । इस प्रयोग ने सावन माह में दर्शकों को भी शिवभक्ति से ओतप्रोत व भक्तिमय किया । इस परिकल्पना को प्रस्तुत करने के लिए दर्शकों की तालियों ने निर्देशक हसन की प्रशंसा की। नाटक लोकमाता अहिल्या एक भावनात्मक, ऐतिहासिक और प्रेरणादायक कथानक को प्रस्तुत करता है। शिवस्तुति से नाटक शुरू होता है । शिव पार्वती कैलाश पर्वत पर प्रकट होते हैं । इसी दृश्य में अहिल्या का बचपन दिखाया गया कि कैसे अहिल्या अपने आराध्य शिवलिंग का निर्माण करते हुए आराधना में तल्लीन रहती है कि उसे अपने पास आ रही सेना को घोड़ों की चापों से भी तनिक डर नही लगता और उसकी इस भक्ति को शिव पार्वती जी स्वयं देख रहे होते हैं । यहां शिव जी बताते हैं कि यह बालिका आने वाले कल में श्रेष्ठ शासक बनेगी, परंतु उसे अपने जीवन में अनेकानेक कठनाइयों का सामना भी करना होगा । किंतु अहिल्या के मन व भक्ति की शुद्धता से प्रसन्न भगवान शिव स्वयं माता पार्वती को अहिल्या बाई होलकर के जीवन वृत्तांत बताते हुए कहते कि मैं स्वयं हरपल अहिल्या के साथ रहूंगा—यहीं से नाटक अपनी कहानी कहता हुआ आगे बढ़ता है। राजा मल्हार राव होल्कर के बेटे और अहिल्या के पति को अल्पायु में ही सूरजमल द्वारा युद्ध मे छल से मार दिया जाता है और उस दौर में सामाजिक प्रथा अनुसार अहिल्या अपने पति की चिता पर सुहागन बनकर सती होने जाती है, जिससे राज्य में हाहाकार मच जाता है । कोई नहीं चाहता था कि ऐसा हो, महाराज भी अहिल्या को सती न होने का आग्रह करते हुए उस उसके मातृधर्म व राष्ट्रधर्म निभाने का आव्हान करते हैं और सती प्रथा को नारी के साथ अन्याय बताते हैं । प्रजा भी अहिल्या से मालवा व प्रजा की भलाई के लिए शेष जीवन लगाने  कहते हैं । अहिल्या यह सब देखकर अपने पति की चिता की अग्नि को साक्षी मानकर शेष जीवन राष्ट्र, धर्म व समाज के लिए समर्पित कर देती है । नाटक का कथानक दृश्य के संवादों से एक महान नारी की जीवनी उजागर करता है, जो न-केवल एक धर्मपरायण स्त्री थीं, बल्कि एक न्यायप्रिय शासिका, समाज सुधारक और समर्पित जननेत्री भी साबित होती हैं । बचपन से ही वे धार्मिक प्रवृत्ति, सहनशीलता और सेवा-भाव से ओतप्रोत थीं। शिक्षा में गहरी रुचि थी और उन्होंने संस्कृत, नीति-शास्त्र और धर्मशास्त्र का अध्यनन किया था । मल्हारराव की मृत्यु के पश्चात अहिल्या बाई ने मालवा की बागडोर संभाली । उन्होंने अपने न्याय, कुशल प्रशासन और जन कल्याणकारी योजनाओं से एक आदर्श राज्य की स्थापना की । नाटक में यह दर्शाया गया कि अहिल्या प्रतिदिन खुले दरबार में जनता की समस्याएँ स्वयं सुनती थीं और तुरंत न्याय देती थीं । उन्होंने दरबार में किसी भी व्यक्ति को बोलने और न्याय माँगने की स्वतंत्रता दी ।  उन्होंने भारत भर में तीर्थ स्थलों का जीर्णोद्धार कराया, जिनमें काशी विश्वनाथ मंदिर, सोमनाथ मंदिर, द्वारका, अयोध्या और हरिद्वार सम्मिलित हैं। यह नाटक एक स्त्री की शक्ति, सहनशीलता, बुद्धिमत्ता और नेतृत्व को दर्शाता है । अहिल्या अपने राज्य की आम कामकाजी महिलाओं को प्रेरणा देकर उनको तलवार का विधिवत प्रशिक्षण दिलाती हैं और दुनिया में अपने तरह के महिला सैन्य दल का गठन करने वाली पहली महिला शासक थीं, जो नारी को अबला नहीं, अपितु सबला बनाती हैं । अहिल्यामाता ने विधवा विवाह का समर्थन किया और महिलाओं की शिक्षा को प्रोत्साहन दिया, जो उस युग में अत्यंत साहसिक कार्य था । नाटक के एक दृश्य में, जब उन्हें पता चलता है कि राजा राघोबा मालवा पर आक्रमण करने आ रहा है, तो वे न-केवल चुनौती को स्वीकार करती है, बल्कि अत्यंत कुशल रणनीतिकार की तरह उसे एक पूरक-पत्र लिखकर सीधे चेतावनी देते हुए कहती हैं—यदि आप एक महिला से जीत गए, तो यह कोई बड़ी बात नहीं होगी; पर यदि हार गए, तो एक महिला से हार जाने पर बहुत अपमानित होना पड़ेगा । इस तरह अहिल्याबाई अपने साहस व बुद्धि से अपने राज्य के भीतर के जयचंदों को भी परास्त करते हुए निरंतर आगे बढ़ती हैं।

कला व कलाकारों का सामाजिक दायित्व कितना महत्वपूर्ण है, इसकी चिंता करते हुए अंतिम दृश्य में यह दिखाया जाता है कि नगर व अपनी प्रजा का दु:ख-सुख देखने आईं अहिल्यामाता पुणे के प्रसिद्ध श्रृंगार रस कवि अनंत फन्दी को गाते हुए सुनती हैं, जिस पर कुछ लोग बीच सड़क पर नृत्य करते हुए दिखते हैं, तो वे कवि महोदय से कहती हैं कि अपनी काव्य-प्रतिभा का उपयोग समाज उत्थान और जागरूकता के लिए भी करें । 

इसी बीच लोकमाता अहिल्या द्वारा मंदिरों, घाटों, धर्मशालाओं आदि का निर्माण व धार्मिक ग्रंथों के अध्ययन के लिए शालाएँ व मंदिरों के जीणोद्धार के कार्यों के लिए उनका अभिनंदन करने एक ब्राह्मण टोली उससे मिलती है । उनके इन्ही कार्यों के गुणगान में लिखे गए ग्रंथ को वे अहिल्या के समक्ष प्रस्तुत करते हैं, पर यह सब अहिल्या माता को बिल्कुल भी नही पसंद नहीं आता, क्योंकि वे राष्ट्र ,समाज व धर्म कल्याण के लिए किसी शासक के कार्यों को उनका दायित्व समझती हैं, जिस पर  व्यक्तिगत प्रशंसा उन्हें पसंद नही आती । इसी कारण अहिल्या अपने ऊपर लिखे गए इस ग्रन्थ को अस्वीकार करते हुए कहती हैं कि शासन करने वाले व्यक्ति-विशेष की प्रशंसा पर इस प्रकार का कोई भी कार्य समय को नष्ठ करने अतिरिक्त कुछ भी नही है । इससे बेहतर है कि आप शिव महिमा पर अथवा समाज को प्रेरणा देने वाला कोई उपयोगी ग्रंथ लिखिए, तब मेरे समक्ष आइयेगा, मैं आपको उचित सम्मान दूंगी । आप अतिशीघ्र इस प्रशंसात्मक ग्रंथ को नर्मदा मैया में प्रवाहित कर दीजिए। 

इसके बाद भगवान शिव व पार्वती जी प्रकट होते हैं और बीमार अहिल्या, जो स्वयं अपने द्वारा निर्मित शिवलिंग के साथ बैठे-बैठे बेसुध हो जाती हैं—वे उनकी भक्ति, धर्म व राष्ट्रनिष्ठा के समस्त कार्यों से प्रसन्न हो कहते हैं अहिल्या अब पृथ्वी पर तुम्हारा कार्य पूर्ण हुआ । तुम्हारी दूरदर्शिता, आमजन के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने के यत्नों तथा धर्म स्थापना के श्रेष्ठतम कार्यों के लिए तुम युगों-युगों तक लोगों के ह्रदय में पूजनीय लोकमाता के रूप में जीवित रहकर प्रेरणा बनोगी । इसी के साथ अहिल्याबाई शिव जी की परिक्रमा करते हुए उनके श्रीचरणों में समा जाती हैं और नाटक प्रेरणा देते हुए भावपूर्वक समाप्त हो जाता है।

शिवस्तुति से प्रारंभ 80 मिनिट के इस नाटक में तीन नृत्य प्रस्तुतियां है और 7 वर्ष से 65 वर्ष तक के कलाकारों ने नृत्य व अभिनय किया है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह नाटक समाज को एक नई दिशा देता है।

 नाटक के प्रमुख संवाद

>सत्य और सेवा के मार्ग पर चलने वालों को सदैव ही विरोध का सामना करना पड़ता है। 

>इन्होंने अपराध तो किया है किंतु सभी को न्याय देना शासन का प्रथम कर्तव्य है।
 
>कोई जाति छोटी या बढ़ी नहीं होती, हमारे विचार, रहन-सहन, जाति या संप्रदाय कोई भी हो—हमारा धर्म एक ही है । हमारे धर्म समाज में समरसता से ही राज्य का विकास संभव है।

>आँच नहीं आने दूँगी अपनी मातृभूमि पर, एक  विधवा स्त्री को लाचार न समझें, हाथ में तलवार लेकर निकल पड़ूँगी; तो आतताइयों का सर्वनाश कर दूँगी।

>स्त्री कोमल अवश्य है, भावुक और संवेदनशील भी; किंतु उसे लाचार समझना बड़ी भूल है।

मंच पर

शिव जी – वरुण महापात्र
पार्वती जी – माही चौधरी
महाराज मल्हारराव – डॉ पुनीत चंद्र 
महारानी हरकुंवर –  सपना पवार
अहिल्या 01 – अनन्य उपाध्याय 
अहिल्या 02 – आकांक्षा भदौरिया
अहिल्या 03 – सपना पवार
तुकोजी राव – गौतम लोधी
गंगोबा – आदिल खान 
हरबा – अतुल धाकड़
सुंदरी – निकिता ठाकुर 
राघोबा – राहुल निमिया
सेनापति – जयदीप चक्रधर
भील सरदार – अभिषेक जाधव
साथी – विवेक साहू , पुनीत चंद्र
ब्राह्मण टोली – सार्थक सक्सेना, पुनीत चंद्र, अभिषेक जाधव , विवेक साहू 
सैनिक – सार्थक, अभिषेक, विवेक

 मंच परे

मंच व्यवस्थापक : दीपांशु साहू

सहायक : लोकेंद्र सिंह ठाकुर

मंच परिकल्पना : सरफ़राज़ हसन

वेशभूषा : सीमा राय, सना शाहिद

प्रॉप्स/प्रॉपर्टी : जयदीप, वरुण

प्रचार/प्रसार : अमन अग्रवाल

रूप सज्जा : नरेंद्र सिंह राजपूत

प्रकाश परिकल्पना व संचालन : बृजेश अनय

कोरियॉग्राफर : निकिता राव

ग्रुप संजू डांस अकादमी, कोलार रोड

लेखक : उमेश कुमार चौरसिया

पूर्णरंग, परिकल्पना व निर्देशक :

सरफ़राज़ हसन

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