BJP Congress – 2023 के हिन्दी भाषी तीन राज्यों के चुनावों ने चुनावी पंडितों और राजनैतिक विश£ेषकों को इस बार बहुत संशय और विरोधाभास की स्थिति में रखा है। पर मुझे लगता है कि एक बात पर विश£ेषक ध्यान नहीं दे रहे वो है चुनावी तैयारी और चुनावी प्रबंधन। जिस तरह माइक्रो लेवल पर भाजपा ने पूरे पांच वर्ष तैयारी की उसके सामने दूसरी पार्टियां बहुत बौनी साबित हुई। गौर करना होगा कि जिस तरह भाजपा कारपोरेट स्टाईल की तैयारी करती है, पहले क्षेत्र में जाकर समझना फिर उस पर मंथन करना फिर वही प्रयोग करना और प्रयोग के असर का विश£ेषण कर रणनीति बनाना।
इतनी लंबी प्रक्रिया कांग्रेस/ आप या दूसरी पार्टियां अपनाना ही नहीं चाहती। उसका कारण है शायद पार्टियों में अनुशासन का ना होना, पार्टी को दिल से ना मानना और पार्टी को बढ़ते देखने की सोच का ना होना । वरन स्वयं की प्रगति या फायदे के लिए पार्टी का हिस्सा होना दूसरी पार्टियों को भाजपा से अलग करती है।
हमे देखना होगा जिस तरह से भाजपा का केंद्रिय नेतृत्व का प्रदेश भाजपा नेतृत्व से समन्वय होना और प्रदेश नेतृत्व का जिला और मंडल स्तर से सतत् संपर्क रखना। उसके मुकाबले कांग्रेस या अन्य पार्टियों का संगठन पर कोई जोर नहीं है। अन्य पार्टियां चुनावी समर की घोषणा के बाद सक्रिय होती हैं और तैयारी के लिए जो समय मिलना चाहिए वो शायद कम होता है।
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अब बात करें रणनीतिकारों की तो जमीन-आसमान का फर्क है। भाजपा में अमित शाह, जेपी नड्डा जैसे लोग हैं तो कांग्रेस में रणदीप सुरजेवाला जैसे लोग है। ना खुद चुनाव जीत सकते ना इस स्तर पर चुनावी समर में भाजपा जैसी मजबूत पार्टी से लड़ सकते।
अब बात करें मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीगढ़ के चुनावों में मतदान वाले दिन की। म.प्र. में देखे जिस तरह से भाजपा के कार्यकर्ताओं ने पन्ना प्रभारियों के निर्देश पर मतदान करवाया वो भाजपा की जीत का सबसे बड़ा कारण है। वहीं कांग्रेस के बूथ एजेंट और कार्यकर्ता ना तो बहुत सीरियस थे और हमेशा की तरह दोपहर ढाई बजे के बाद बूथ पर कांग्रेस कार्यकर्ता नदारत दिखे। वहीं भाजपा के पन्ना प्रभारियों से समन्वय बनाकर अपने मतदाताओं को बूथ पर भेजकर मतदान करवाया।
जितने चुनावी विश£ेषक थे वो सिर्फ कुछ मतदाताओं से चर्चा कर अपना मन बना रहे थे। एग्जिट पोल या प्री पोल सर्वे के आंकड़े दे रहे हैं। कोई भी चुनाव का सबसे महत्वपूर्ण दिन मतदान का दिन होता है और उस दिन पार्टी या प्रत्याशी का चुनावी प्रबंधन होता है।
जनता के मन में कुछ होना पर यदि वह बूथ तक जाकर मतदान नहीं करेगा तो जो परिणाम आता दिखता है वह धरातल पर नहीं उतरता है। मध्यप्रदेश की बात करेंगे तो कांग्रेस वन मेन आर्मी कमलनाथ के भरोसे लड़ रही थी। वहीं भाजपा के तरकस में इतने सारे तीर थे कि कांग्रेस की प्रदेश इकाई बौनी नजर आ रही थी। कांग्रेस के स्टार प्रचारक भी चुनाव से दूर दिखे या कमलनाथ संभावित जीत का श्रेय किसी और के साथ बांटना नहीं चाहते थे।
जब भाजपा ने केंद्रीय मंत्रियों और सांसदों को उतारा तो कांग्रेस ने जो माहौल बनाया वो लगा शायद वाकई भाजपा बैकफुट पर है पर उसका असर यह हुआ कि इन सभी कद्दावर नेताओं ने ना सिर्फ अपनी सीटें निकाली बल्कि आसपास में भी जीत का रास्ता बनाया और ये ही भाजपा का प्लान था। अपवाद स्वरूप फग्गनसिंह कुलस्ते और गणेश सिंह जरूर हार गए।
पर इस जीत से यह तो लगभग तय हो गया कि आगामी लोकसभा में भाजपा की जो सुनामी आती दिख रही उसमें बहुत सारे राज्यों में किसी भी पार्टी का खाता नहीं खलेगा और मोदी सरकार पिछली संख्या 303 से भी बहुत आगे निकलती नजर आएगी।
वहीं कांग्रेस ने भी बहुत सारे सेल्फ गोल किए जो हार का कारण बना जिसमें इंडी गठबंधन के दबाव में सनानत विरोधी बयान पर चुप रहना, हमेशा की तरह मोदी के लिए अपशब्द कहना, अपमान करना, जाति जनगणना की बात करना और स्वयं कमलनाथ को मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट करना कोई विकास का रोडमैप ना होना सिर्फ वचन देना और उन वचनों को पूरा करने की कोई तैयारी ना होना।
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